माँ की बुक्कल अक्सर हमें बचाती थी,
जब बापू ने छड़ी उठा के डांटा था.
जब भी रात को देर गए हम घर पहुंचे,
बच्चे की नम आँखें मुंह पे चांटा था.
Tuesday, December 8, 2009
Tuesday, November 24, 2009
गज़लें
कहीं लग जाए जो मेंहदी सी रंग लाए है।
दुआ हो कांच सी तो गिर के टूट जाए है।
लोग सब चाहा किए, उसकी भी औकात सुनो,
वजह नुकते की से हर सूं ज़ुदा हो जाए है।
कोई सारंगी सी बजती हो ख्वाब में गोया,
जब भी आए है उसकी याद यूँ ही आए है।
न जो बननी हो कोई बात नहीं बनती है,
और जो बननी हो तो चुटकी में बन जाए है।
शीशियों में पड़े सूखे हुए रंगों की तरह,
एक गाली सा कोई लम्हां ठहर जाए है।
कुछ तो है फख्र उन्हें या यूँ कहें बदगुमानी,
क्या कोई ऐसा कभी इश्क भी कर पाए है?
जानते सब हैं मुझे, मैं मिला किसी को नहीं,
हवा सी हस्ती मेरी हाथ कहाँ आए है।
दुआ हो कांच सी तो गिर के टूट जाए है।
लोग सब चाहा किए, उसकी भी औकात सुनो,
वजह नुकते की से हर सूं ज़ुदा हो जाए है।
कोई सारंगी सी बजती हो ख्वाब में गोया,
जब भी आए है उसकी याद यूँ ही आए है।
न जो बननी हो कोई बात नहीं बनती है,
और जो बननी हो तो चुटकी में बन जाए है।
शीशियों में पड़े सूखे हुए रंगों की तरह,
एक गाली सा कोई लम्हां ठहर जाए है।
कुछ तो है फख्र उन्हें या यूँ कहें बदगुमानी,
क्या कोई ऐसा कभी इश्क भी कर पाए है?
जानते सब हैं मुझे, मैं मिला किसी को नहीं,
हवा सी हस्ती मेरी हाथ कहाँ आए है।
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